हम, हमारा बचपन और छठ पूजा

याद है, कैसे हम सब दिवाली पे पटाखे जलाते थे और सुबह जले हुए पटाखों में से वो पटाखे खोजते थे जो नहीं जली। छठ पूजा के लिए पटाखे बचाते थे। सुबह वाले अर्घ्य में आलू बम छोड़ेंगे और शाम वाले अर्घ्य में अनार। सब बचा कर रखते थे। छठ पूजा का इंतज़ार रहता था। वो चार दिन की चाँदनी। छठ पूजा की तैयारी के लिए पहले तो गेहूं और चावल आता था। धो कर सुखाया जाता था। सुखाने के लिए भी छत पे लकड़ी ले के बैठते थे की चिड़िया न खा ले। सूखने के बाद गेहूं और चावल चुनते थे। अगले दिन पिसवाने जाते थे वो गेहूं।

छठ पूजा की शुरुआत होती है ‘नहाये-खाए’ से। घर पे होते थे तो चना दाल, कद्दू, भात, बछ्का, गोभी का सब्जी खाने का लुत्फ़ उठाते थे। सारे भाई बहन मस्ती मज़ाक कर के रात को देर से सोते थे। वो मौसी का डांटना, माँ का चिल्लाना, “देर हो रहा है, क्या करते रहती हो तुमलोग इतना रात में”, याद आता है। फिर अगले दिन का इंतज़ार होता था। ‘खरना’ के लिए रोटी और खीर बनता था पूरा दिन। शाम को हमलोग तैयार होते थे की लोग आयेंगे प्रसाद खाने। माँ और मौसी का खरना पूजा कर के व्रत टूटता था। प्रसाद में रोटी और गुड वाला खीर और एक केला मिलता था। फिर जो साड़ी पहन के माँ और मौसी पूजा की, वो साड़ी धुलता था और पसार देते थे। सूखने पे एक एक कोना पकड़ के हमलोग खीचते थे की ‘चूर’ न लगे। सुबह अलार्म लगा के भी देर से उठते थे। फिर नहा के पूजा रूम में ठेकुआ ठोकते थे। कोई आटा सानता था। कोई ठेकुआ छानता था। कोई एपण लगता था फल में। कोई ठेकुआ में सिंदूर लगता था। फिर आती थी बारी सूप सजाने की। सूप सजता था। अगरबत्ती लगाते थे हमलोग। माँ और मौसी अगरबत्ती दिखाती थी, फिर माथा टेक के हमलोग निकलते थे। तब कपड़े बदल कर खाते थे। माँ बोलती है की उस कपड़े को जूठा नहीं करने।

खाना खा के लेटने जाते थे तब तक सब बोलता था तैयार हो जाओ। फिर दौरा भी तो छत पे ले जाना होता था। सूप को दौरा में डाल के भैया सर पे रख के छत पे ले के जाता था। हम दिया और माचिस और अगरबत्ती वाला दौरा ले के जाते थे। दिया में घी बत्ती डालना मेरा काम रहता था। दिया जलाते थे और अर्घ्य देने का समय होता था तो लोग आने लगते थे। अर्घ्य दे के लोग ढलते सूर्य से प्रार्थना करते थे, फिर चले जाते थे। दौरा वापस नीचे ले के जाता था भैया। पूजा रूम में फिर सूप लगा के अगरबत्ती जला के प्रणाम कर के निकलते थे। पटाखे जलाते थे और फिर वापस वो भाई बहनों के साथ मस्ती और एक दूसरे को तंग करना चलता था। भैया दीदी और हम रात भर जागते थे की सबसे पहले नहा के तैयार रहेंगे। हमलोग 3 बजे नहा लेते थे, बिना आवाज़ किये। सब सोये रहते थे। हमलोग फिर सबको उठाते थे। कितना मज़ा आता था जब सब छोटे थे हमलोग। फिर हमलोग पूजा रूम से दौरा ऊपर ले के जाते थे। सब सजा देते थे की किसी को परेशानी न हो। बड़े लोग तब हमलोग पे हस्ते थे की छोटी सी उम्र में हमलोग कितना सोचते हैं। तब बस वही सुनना चाहते थे हमलोग। कोई खुश होता था हमलोग से तो ख़ुशी होती थी।

सुबह अर्घ्य के पहले माँ और मौसी इंतज़ार करती थी सूर्य देव का। दूध का इंतज़ाम मामा लोग कर देते थे। सूर्य देव के आगमन पर ऐसी ख़ुशी होती थी जिसका हिसाब नहीं। माँ और मौसी भी खुश होती थी। उगता हुआ सूर्य सच में बहुत सुन्दर लगता है। सब अर्घ्य देने के लिए उत्सुक होते थे। हम सब को पटाखे जो जलाने होते थे। अर्घ्य दे के माँ और मौसी को प्रणाम करते थे तो आँचल से मुंह पोछती थी माँ, ठेकुआ भी मिलता था। सारा सामान नीचे पहुचाते थे फिर पटाखे जलाते थे। घर में चना दाल के पकोड़े बनते थे। घुघनी और पूरी। नाश्ता यही होता था। पर उस दिन खाली खाली सा महसूस होता था। प्रसाद बाँट कर  फिर सब अपने अपने घर चले जाते थे।

अब लोग बड़े शहरों में रहने लगे हैं। छठ की छुट्टी नहीं मिलती ।  माँ और मौसी की भी उम्र हो गयी । सब कुछ एक साथ नहीं हो पाता सब अब अपनी ही दुनिया में रहते हैं, किसी के पास समय नहीं होता तो Skype पर ही प्रणाम कर लेते हैं, क्यूंकि छुट्टी नहीं मिलतीअब बस लगता है की एक बार फिर सब साथ हो तो मज़ा आ जाए। फिर वही दिन, वही मस्ती।

छठ पूजा की सभी को ढेर सारी शुभकामनायें।

~ Tanya Ranjan